Wednesday, September 22, 2010

करो कौम को अपनी बेदार वरना

जहां पर भी जालिम की यलगार होगी,
सदाकत भरी मेरी ललकार होगी।

मेरे साथ में मेरा किरदार होगा,
न नेजा, न खंजर न तलवार होगी।

परेशान वह जीत कर भी रहेगा,
मै खुश ही रहूंगा, भले हार होगी।

सियासम की दुनिया है धोखे की मूरत,
ये किसने कहा था मिलनसार होगी।

करो कौम को अपनी बेदार वरना,
न पगडी रहेगी न दस्‍तार होगी।

Tuesday, September 21, 2010

चोट करने का सही वक्‍त

आज हम एक अहम मुकाम पर खडे हैं। शंक्रवार का उच्‍च ‍न्‍यायालय द्वारा अयोध्‍या के विवादित स्‍थल के मालिकाना हक के बारे में फेसला आने वाला है। फैसला किसी के पक्ष में आए, भारत केसंविधान में आस्‍था रखने वाले हर व्‍यक्ति को उससे सहमत होना चाहिए और अच्‍छे इंसान उससे सहमत होंगे भी। इस दौरान यह भी है कि तमाम फिरकापरस्‍त ताकतें इस फैसले को लेकर मुल्‍क का अम्‍नों अमान बिगाडने की नापाक कोशिश कर सकती हैं। मगर इस बार एक अच्‍‍छी बात यह है कि फैसले की घडी करीब होने के बावजूद मुल्‍क में कहीं भी उन्‍माद की स्थिति नहीं दिखती। मीडिया भी इस बार संयम बरत रहा है। जाहिर है कि साम्‍प्रदायिक तत्‍व इस बार कमजोर दिख रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनके दिल बदल गये हैं। उनकी केवल भाषा बदली है। फर्क सिर्फ यह आया है कि सन 92 में मस्जिद टूटने के बाद उत्‍पन्‍न दंगों की त्रासदी ने सौहार्द्र टूटने के बाद की पीडा का यहसास करा दिया है। यही नहीं इस दौरान 92 के बाद की एक नई पीढी भी आ गई है। बात साफ है कि फिलहाल फिरकापरस्‍ती की जडें कमजोर दिखती हैं। शायद घटता जनसमर्थन देख दोनो सम्‍प्रदाय के फिरकापरस्‍त तत्‍व खामोश है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह थक गये हैं।
बहरहासल हमारा मानना यह है कि इस वक्‍त ऐसे अनासिर कमजोर पडे हैं, लिहाजा अमन चैन चहने वालों को इसका फयादा उठााना चाहिए और जो जहां है, वहीं पर सक्रिय होकर भाईचारा बढाने का काम करे। लोगों को बताएं कि विकास के लिए शांति की कितनी जरूरी है। अगर एक आदमी अपने मुहल्‍ले के दो चार घरों में भी सार्थक संवाद कर सका तो देश में खून खराबा चाहने वाली मुल्‍की ताकतें ही नहीं हमारे विदेशी दुश्‍मनों के हौसले भी टूट जाएंगे। यही सही वक्‍त है दोस्‍तो। आओ हम अम्‍न कायम करने की मुहिम में जुट जाएं।

Friday, September 17, 2010

हर किसान की बेटी आज कल रुआंसी है

गजल
मालियों की नजरों में, बात बस जरा सी है,
पर कली समझती है, हर शलभ विलासी है।
गैर के गलीचे में झांकना बहुत मुश्किल,
कौन अपने दामन का, ले सका तलाशी है।
रुढियों की मंडी में, मोल सुनके सपनों का,
हर किसान की बेटी, आज कल रुआंसी हैं।
राजनीति के मठ में देव कैसे-कैसे हैं,
चेहरा राम जैसा है, चाल मंथरा सी है।