Wednesday, April 28, 2010

जदीद शायरों के नये अंदाज़

कहते हैं कि ग़ालिब का अंदाज़े बयां अलग था। यही वजह है कि ग़ालिब ही नहीं, मीर,दाग़, जोश, फि़राक़ को आज भी बेमिसाल शायर माना जाता है, मगर ज़रा सोचिए आज के उन शायरों के बारे में जिन्‍होंने वह लिख डाला जो मीर और गालिब नहीं सोच सके। मसलन गोरखपुर में दैनिक जागरण से जुड़े मेरे अजीज राजेश सिंह जी आम आदमी की पीड1ा बयान करते हुए जब यह कहते है कि- पिफर कहींं चांद की फरमाइश न कर दे बच्‍चा, कई दिनों से कहां खुल के मिल रहा हूं मै' राजेश जी नहीं मेरे एक और पत्रकार साथी और हमारे सीनियर रह चुके ीााई महेश अश्‍क ने लिखा था कि- या तो बूढ़े हैं, या बच्‍चे हैं, मेरे शहर के लोग, पूरे कुनबे में मेरे कोई जवां है ही नहीं।
स्‍व दुष्‍यंत कुमार की लाइनें- कहां तो तय था चिराग़ां हर एक घर के लिए, कहां चिराग़ मयस्‍सर नहीं शहर के लिए, स्‍व माधव मधुकर की लाइनें कि- जब धर से चला था तो सभी लोग थो जिंदा, अब शहर में लौटे हैं तो न बच्‍चे हैं न घर हैं। मेराज फ़ैजाबादी की तख़लीक़- मुझको थकने नहीं देता है जरूरत का पहाड़, मेरे बच्‍चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते।
साहिबान ज़रा आज के दौर के इन शायरों की ऐसी लाइनों को पढ़ें। इनमें शराब, शाबाब, इश्‍क-मुहब्‍बत की बातें नहीं हैंत्र उन्‍होंने शहंशाहों के शान में कसीदे नहीं गढ़े हैं। ऐसे सभी शायरों ने आम आदमी की पीड़ा, इनसानियत की हिफाजत और फिरक़ापरस्‍त ताकतों को शिकस्‍त देने की बात की है। आज के शायर जनाब मुनव्‍वर राना जब कहते है कि- कभी हम अूट जाते हैं, कभी घर टूट जाता है, तो लगता है कि वह अपके या पिफर आपके किसी परेशान पड़ोसी का दर्द निचोड कर आपके सामने पेश कर रहे हैं। डा बशीर बद्र साहब, राहत इंदौरी साहब,जौहर करनपुरी साहब जो लिख रहे हैं, क्‍या उसका वजन मीर और ग़ालिब की शायरी से कम है। यह सवाल में कविता और शायरी में दिलचस्‍पी रखने वालों के लिए छोड़ रहा हूं।

Sunday, April 25, 2010

इस हमाम में सभी नंगे

इंडियन प्रीमियर ली यानी आईपीएल का तमाशा खत्‍म हुआ। इंडियन प्रीमियर लीग से उंडियन पैसा लीग तक का सफर तय करने के बाद यह तमाश उंडियन पार्न लीग बन गया है। लीग की शुरूआत के बाद से ही इस तमाशे को लेकर कई तमाशे हुए, जिसमें तमाम किस्‍म के जमूरे और मदारी सामने आए। मिनिस्‍टर शशि थरूर, शरद पवार, कमिश्‍नर ललित मोदी के तमाम जमूरों की डुगडुगियां बजीं। इस खेल में थरूर वीरगति पा गये, मोदी को अभी निपटाया जाना बाकी है। लेकिन हम बात थरूर और मोदी की ही क्‍यों करें। मुल्‍क में खेल और खिलाडि1यों का सत्‍यानाश करना सियासी शगल बन गया है। आठ ओलि‍म्पक गोल्‍ड लाने वाली हमारी हाकी कहां है। उसे बरबाद करने वाले कौन हैं, और आज वह किसा मुकाम पर हैं,यह कौ‍न नहीं जानता है। कामनवेल्‍थ बैडमिंटन चैम्पियन सैयद मोदी का सरेआम कत्‍ल हुआ, कातिल आजाद घूम रहे हैं। दर्जनो ओलम्पियन आज रिक्‍शा चला कर अथवा चाट की दुकान लगाा कर अपना पेट पाल रहे हैं। उत्‍त्‍र प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हजारों करोड1 पार्क और मुजस्सिमों पर खर्च हो रहे है1, मगर इसी सूबे के झांसी शहर के मेजर ध्‍यानचंद के नाम पर कोई पार्क नहीं बनाया गया। नेहरू इंदिरा के नाम पर उपनगरों, सडकोंश्, पुलों और तमाम परियोजनाओं की भरमार है, मगर विश्‍व शतरंज चैम्पियन वी आनन्‍द, आल इंग्‍लैंड बैडंमिंटन चैम्पियन प्रकाशपादुकोण को कितना मान दिया गया़। दरअसल इस मुल्‍क में सियासत करने वालों की रगों में ईगों का जहर कुछ इस कदर भर गया है कि उनकी नजर में खेल और खिलाड़ी हिकारत की चीज़ बन गये हैं। इसलिए सिर्फ थरूर और मोदी को कोसने से काम नहीं चलेगा। इसके लिए खेल के सिस्‍टम से जुड़े हर जिम्‍मेदार को कटघरे में खडा करना पड़ेगा। इसलिए कि इस सिस्‍टम के हम्‍माम में सभी नंगे हैं।

यहां रोटी भले न हो, मगर किरदार जिंदा है

बात हमारे शहर सिद़धार्थनगर से 45 किमी दूर स्थित पथपरा गांव की है। वहां के दो गंवईं डाक्‍टर विश्‍वदेव शुक्‍ल व जमीरुल्‍लाह की है। दोनो जो कुछ कमाते हैं,भाईचारा और इंसानियत की हिफाजत के नाम पर खर्च कर देते हैं। मैने आज अपने अखबार दैनिक जागरण में साम्‍प्रदायिक सद़भाव के उन दोनो सफीरों पर एक रिपोर्ट फाइल की है। दोनो चिकित्‍सक शुक्‍ल और जमीरुल ने मिल कर आठ ग्रामीणों की टीम बना रखी है। यह लोग साल में तीन महीने के लिए घर छोड कर किसी धार्मिक महत्‍व वाले शहर में जाते हैं। वहां जो भी मंदिर, मस्जिद, गिरजा मिलता है, पूजा अर्चना करते है और वहां लोगों से देश और समाज की तरक्‍की के लिए साम्‍प्रादायिक सद़ृभाव की जरूरत पर अपने विचार करते हैं। इस काम में जो रकम खर्च होती है, वह अपने पास से खर्च करते हैं। वह कभी प्रिंट अथवा इलेक्‍टृनिक मीडिया से बात तक नहीं करते। बस अपना मिशन खामोशी से चला रहे हैं। यह काम वह पिछले दस साल से चला रहे हैं। अचानक यह बात मुझे पिछले सप्‍ताह मालूम हुई, मैने उन पर स्‍टोरी फ़ाइल की। जागरण ने इसे 25 अप्रैल 2010 के अंक में प्रकाशित भी किया। दोनों चिकित्‍सक दोस्‍तों की इंसानियत के प्रति यह मुहब्‍बत देख मै अभिभूत हूं। मै सोचता हूं कि आज के जहर भरे माहौल में वह हर साल अपनी नौ महीने की कमाई खर्च कर यह सब क्‍यों कर रहे है। इसके जवाब में दोनों डाक्‍टर दोस्‍तों ने जो कुछ कहा, वह देश के राजनीतिज्ञों के लिए सबक़ हैं। उनकी बात एक शेर के रूप में है, जिसे मै पेश कर रहा हूं, उम्‍मीद है, आप बात की तह तक पहुंच जाऐंगे। प्रस्‍तुत है शेर::::
नदी की तरह से होती हैं, सरहद की लकीरें भी,
कोई इस पार जिंदा है, कोई उस पार जिंदा है,
सियासतदानों से कह दो हमारे गांव, मत आऐं,
यहां रोटी भले न हो, मगर किरदार जिंदा है।

Saturday, April 24, 2010

मेरी खुद़दारी

किसी मुकाम पे,डरना मुझे कबूल नहीं,
कदम-कदम पे, बिखरना मुझे कबूल नहीं।
रिवाज घर का मेरे, सर उठा के चलने का,
नजर बचा के गुज़रना मुझे कबूल नहीं।
मेरे क़बीले का, दस्‍तूर है वफा़दारी,
मिला के हाथ, मुकरना मुझे कबूल नहीं।
भरी नदी कीश्‍ रवानी हमारी फि़तरत है,
समंदरों सा, ठहरना मुझे क़बूल नहीं।
सभी की मौत का, दिन घडी सुनिश्‍चत है,
तमाम कि़स्‍तों में मरना, मुझे क़बूल नहीं।