Saturday, April 24, 2010

मेरी खुद़दारी

किसी मुकाम पे,डरना मुझे कबूल नहीं,
कदम-कदम पे, बिखरना मुझे कबूल नहीं।
रिवाज घर का मेरे, सर उठा के चलने का,
नजर बचा के गुज़रना मुझे कबूल नहीं।
मेरे क़बीले का, दस्‍तूर है वफा़दारी,
मिला के हाथ, मुकरना मुझे कबूल नहीं।
भरी नदी कीश्‍ रवानी हमारी फि़तरत है,
समंदरों सा, ठहरना मुझे क़बूल नहीं।
सभी की मौत का, दिन घडी सुनिश्‍चत है,
तमाम कि़स्‍तों में मरना, मुझे क़बूल नहीं।

2 comments:

  1. जनाब नजीर मलिक साहब
    आदाब अर्ज़ !
    अच्छी ग़ज़ल कही है …
    भरी नदी की रवानी हमारी फि़तरत है,
    समंदरों सा ठहरना मुझे क़बूल नहीं।

    वाह वाऽऽह ! बहुत ख़ूबसूरत शे'र है ।

    बहुत बहुत शुभकामनाएं
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. जनाब स्‍वर्णकार साहब,
    मेरी गजल पसंद आयी, शुक्रिया। दिल मंे जगह बनाये रखें, करम होगा।

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