कहते हैं कि ग़ालिब का अंदाज़े बयां अलग था। यही वजह है कि ग़ालिब ही नहीं, मीर,दाग़, जोश, फि़राक़ को आज भी बेमिसाल शायर माना जाता है, मगर ज़रा सोचिए आज के उन शायरों के बारे में जिन्होंने वह लिख डाला जो मीर और गालिब नहीं सोच सके। मसलन गोरखपुर में दैनिक जागरण से जुड़े मेरे अजीज राजेश सिंह जी आम आदमी की पीड1ा बयान करते हुए जब यह कहते है कि- पिफर कहींं चांद की फरमाइश न कर दे बच्चा, कई दिनों से कहां खुल के मिल रहा हूं मै' राजेश जी नहीं मेरे एक और पत्रकार साथी और हमारे सीनियर रह चुके ीााई महेश अश्क ने लिखा था कि- या तो बूढ़े हैं, या बच्चे हैं, मेरे शहर के लोग, पूरे कुनबे में मेरे कोई जवां है ही नहीं।
स्व दुष्यंत कुमार की लाइनें- कहां तो तय था चिराग़ां हर एक घर के लिए, कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए, स्व माधव मधुकर की लाइनें कि- जब धर से चला था तो सभी लोग थो जिंदा, अब शहर में लौटे हैं तो न बच्चे हैं न घर हैं। मेराज फ़ैजाबादी की तख़लीक़- मुझको थकने नहीं देता है जरूरत का पहाड़, मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते।
साहिबान ज़रा आज के दौर के इन शायरों की ऐसी लाइनों को पढ़ें। इनमें शराब, शाबाब, इश्क-मुहब्बत की बातें नहीं हैंत्र उन्होंने शहंशाहों के शान में कसीदे नहीं गढ़े हैं। ऐसे सभी शायरों ने आम आदमी की पीड़ा, इनसानियत की हिफाजत और फिरक़ापरस्त ताकतों को शिकस्त देने की बात की है। आज के शायर जनाब मुनव्वर राना जब कहते है कि- कभी हम अूट जाते हैं, कभी घर टूट जाता है, तो लगता है कि वह अपके या पिफर आपके किसी परेशान पड़ोसी का दर्द निचोड कर आपके सामने पेश कर रहे हैं। डा बशीर बद्र साहब, राहत इंदौरी साहब,जौहर करनपुरी साहब जो लिख रहे हैं, क्या उसका वजन मीर और ग़ालिब की शायरी से कम है। यह सवाल में कविता और शायरी में दिलचस्पी रखने वालों के लिए छोड़ रहा हूं।
नज़ीर मलिक भाई मैं आप से इत्तेफ़ाक रखता हूँ| कभी वक्त मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी पधारें:- http://thalebaithe.blogspot.com
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